ईमान बयान और अमल है [जो दिल में विश्वास के साथ और ज़बान से बोला जाता है और (जीस पर) शरीर के अंगों द्वारा (सही) तरीक़े से कार्य किय जाता है।] अमल और बयान दोनों बराबर के पहलू हैं। यह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और हम इन दोनों में फ़र्क़ नहीं करते। अमल के बिना कोई ईमान नहीं और कोई अमल नहीं सिवाय जो ईमान के साथ किया जाए।
और ईमान वाले (लोग) अपने ईमान में उतार-चढ़ाव देखते हैं। वह अपने ईमान को अच्छे कर्मों से बढ़ाते हैं और वह अपने गुनाहों की वजह से ईमान से बेदख़ल नहीं होते। नाही वह बड़े गुनाहों के करने से या नाफ़र्मानी करने से काफिर घोषित कीये जाते हैं। और जो पुण्य के काम करते हैं हम उन पर जन्नत (स्वर्ग) अनिवार्य नहीं करते सिवाय उनके जिनके लिए नबी (सल्लल्लाहु अ़लैहि व सल्लम) ने जन्नत (स्वर्ग) की घोषणा की है। और नाही हम यह गवाही देते हैं की जो बुरे काम करते हैं वो आग (जहन्नुम) में होंगे।
स्रोत: शरह अस-सुन्नाह (इमाम अल-बरबहारी)