रोज़े (उपवास) के अनिवार्य होने की बुद्धिमत्ता यह है कि वह सर्वोच्च (अल्लाह) की एक इबादत (उपासना) है जिसके द्वारा भक्त अपनी मनभावन चीज़ो जैसे खाना पीना, संभोग इत्यादि को छोड़ कर अपने पालनहार की निकटता प्राप्त करता है।
इस के द्वारा उसके ईमान की सच्चाई तथा अपने पालनहार के प्रति उसकी सम्पूर्ण भृत्यभाव, गहरा प्रेम और (विशाल) आशा स्पष्ट होती है।
क्योंकि मनुष्य अपनी कोई भी अतिप्रिय चीज़ उसी वक्त छोड़ता है जब उसके बदले उसे उस से भी ज़्यादा प्यारी चीज़ प्राप्त हो। जब एक ईमान वाला व्यक्ति जानता है की उसके पालनहार की प्रसन्नता रोज़े मे है, और उन चीज़ो को छोड़ने मे जिसे वह प्रेम करता है, और जिनकी चाह रखता है, तो वह अपने पालनहार की प्रसन्नता को अपनी प्रसन्नता पर प्राथमिकता देता है। और वह उन चीज़ों को पसंद करने के बावजूद छोड़ देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हृदय की विश्रांति तथा ठहराव सर्वशक्तिमान् (अल्लाह) के लिए उन चीजों को छोड़ने से ही प्राप्त होती है। इसी कारण बहुत से ईमान वालो को, अगर क़ैदख़ाने में भी डाल दिया जाता या उन पर अत्याचार किया जाता फिर भी शरीयत के आदेश बिना वह एक भी रोज़ा नही तोड़ते।
यह बुद्दिमत्ता रोज़े रखने की सबसे महत्वपूर्ण बुद्दिमत्ता है।
सूत्र: मजालिस शहरे रमज़ान – शेख़ सालिह अल उथैमीन द्वारा (अल्लाह उन पर रहम करे)